दिल्ली सल्तनत | राजवंश | स्थापना और विस्तार।

सन 1200 से 1526 के दौरान उत्तर भारत के विशाल भू-भाग पर शासन करने वाले शासकों को सुल्तान तथा उनके शासन काल को दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना गया। ये शासन मूलतः तुर्क तथा अफगान मूल के थे। उन्होंने उत्तर भारत के मुख्य वंशों, मुख्यतः राजपूतों को हराकर अपनी सत्ता की स्थापना की आक्रमणकारी तुर्क मुहम्मद गोरी ने प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज चौहान को सत्ता से अलग कर दिल्ली में अपना राज्य स्थापित किया था।
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इन सुल्तानों ने सन 1200 से 1526 तक लगभग 300 वर्षों से अधिक शासन किया। सल्तनत के आखिरी सुल्तान इब्राहिम लोदी को 1526 में मुगल वंश के संस्थापक बाबर ने पराजित कर भारत में मुगल वंश की नींव डाली थी।
इन 300 वर्षों की कालावधि में पांच विभिन्न वंशों ने दिल्ली पर शासन किया था।
  1. गुलाम वंश के नाम से मशहूर 'मामलुक' (1206-1290 ई.)
  2. खिलजी वंश (सन 1290-1320)
  3. तुगलक वंश (सन 1320-1412)
  4. सैय्यद वंश (सन 1412-1451)
  5. लोधी वंश (1452-1526)
इन सभी वंशों का शासनकाल दिल्ली सल्तनत के नाम से जाना जाता है। हम आपको दिल्ली सल्तनत के गठन की प्रक्रिया से परिचित कराएंगे।
भारत पर अरब आक्रमण
8वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर अरबों ने आक्रमण किया। सन 712 में भारत पर किए गए आक्रमण का नेतृत्व उमैयद खलीफा के सेनापति मुहम्मद बिन कासिम ने किया था। भारत में हुए आक्रमण का उद्देश्य अरब राज्य का विस्तार था। अरब में इस्लाम के उदय ने एक नई राजनीतिक व्यवस्था को जन्म दिया। इस्लाम के प्रचार -प्रसार की प्रक्रिया पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा मक्का पर आधिपत्य स्थापित करने के बाद, उनकी मृत्यु के पश्चात भी जारी रही।
अरब के विस्तार की कहानी उल्लेखनीय है, जिसमें वे पूर्णतः निपुण थे। सन 633-637 के मध्य अरबों ने पश्चिमी एशिया, जोर्डन, सीरिया, इराक, तुर्कों तथा पर्शिया पर विजय हासिल की। उन्होंने उत्तरी अफ्रीका तथा दक्षिण यूरोप में भी अपना झंडा लहराया सन 637-639 के दौरान मिस्र भी अरबों के अधीन हो चुका था। सन 712 तक स्पेन में प्रवेश के उपरान्त जल्द ही उन्होंने फ्रांस की ओर कूच किया। 8वीं शताब्दी तक अरबों ने स्पेन से लेकर भारत तक, भूमध्य सागर हिन्द महासागर के व्यापार को संयुक्त करते हुए मुख्य भूमिका हासिल की।
8वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उमैयद वंश अपनी सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा। उन्होंने सबसे विशाल मुस्लिम राज्य का निर्माण किया अरब भारत की समृद्धि द्वारा भी आकर्षित हुए। अरब व्यापारी तथा नाविक भारत की सम्पन्नता की कहानियां साथ लेकर जाते थे हालांकि सिंध पर आक्रमण का कारण देबोल के लुटेरों द्वारा अरब मालवाहक पोतों मे हुई लूट का बदला लेना था। किंतु राजा दाहिर ने लुटेरों को दंडित करने से इंकार कर दिया। इराक के शासक हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में एक सेना भेजी। वह 712 ई. में सिंध पहुंचा तथा उसने समुद्र तट पर राज कर रहे देबोल को पराजित किया।
सिंधु नदी को पार करने के बाद वह आगे की ओर बढ़ा। रावार में मुहम्मद बिन कासिम ने दाहिर पर आक्रमण कर उसे पराजित किया। अरबों ने बड़ी संख्या में जान बचाकर भाग रहे सैनिकों का कत्लेआम किया। दाहिर भी पकड़ा गया और मारा गया मुहम्मद बिन कासिम और आगे बढ़ा तथा जल्द ही उसने सिंध के महत्त्वपूर्ण स्थानों पर विजय हासिल कर ली। कासिम के अभियानों के चलते सिंध की आर्थिक दशा चरमरा गई। बड़ी संख्या में लोग तथा व्यापारी सिंध से भाग निकले। उसने पंजाब के निचले हिस्से तक सिंध के महत्त्वपूर्ण भागों को जीत लिया था। उसका शासन काल दो वर्ष ही चला। हालांकि बहुत से अरब यहीं बस गए तथा उन्होंने स्थानीय लोगों के साथ रिश्ते स्थापित कर लिए। अरब का प्रभाव सिंध में काफी समय तक चला, क्योंकि सिंध के कई हिस्सों में हमें मुस्लिम शासन देखने को मिलता है।
इस्लाम का उदय और विस्तार
7वीं शताब्दी में अरब में इस्लाम नामक एक नए धर्म का उदय हुआ तथा शीघ्र ही इसकी पताका उत्तरी अफ्रीका से अरब प्रायद्वीप तथा ईरान और भारत तक लहराने लगी। इस्लाम पैगम्बर मुहम्मद साहब द्वारा स्थापित किया गया उन्होंने इस धर्म के उपदेश प्रचारित किए (570-632 ई.)। इस धर्म ने सिर्फ अरब के ही धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक जीवन को नहीं बदला, बल्कि विश्व के कई हिस्सों पर अपना प्रभाव स्थापित किया इस्लाम एक ही ईश्वर की उपासना पर जोर डालता है और उसकी पवित्र पुस्तक 'कुरान' है। मुस्लिमों का विश्वास है कि स्वयं ईश्वर ने कुरान का इलहाम मुहम्मद साहब को दिया है। कुरान को इस्लाम जगत में सर्वोच्च दर्जा हासिल है। प्रत्येक मुस्लिम को दिन में पांच बार नमाज़ पढ़ने को कहा गया, रमजान के माह में रोजे रखने, दान करने तथा मुमकिन हो तो मक्का की तीर्थयात्रा करने को कहा गया पैगम्बर की मृत्यु के पश्चात (632 ई.) मुस्लिमों को राजनीतिक तथा धार्मिक नेतृत्व प्रदान करने की जिम्मेदारी खलीफा (अर्थात उप-प्रमुख, यह उपाधि पैगम्बर मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारियों को दी गई) पर आ गई। 632 ई. से 661 तक चार पवित्र खलीफा हुए जो मुहम्मद साहब के नजदीकी थे। उमैयद खलीफा (661-750 ई.) पवित्र खलीफाओं के उत्तराधिकारी के रूप में आए। उमैयद वंश ने खलीफाओं को स्थिरता सम्पन्नता प्रदान की उमैयद वंश में बाद में अब्बासिद खलीफा थे (सन 750-1258) अब्बासिद के बाद खलीफा की राजनीतिक शक्ति का हास होने लगा था विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र मुस्लिम शासकों का उदय हुआ।
महमूद गजनी
महमूद गजनी ने सन 1000-1026 के दौरान कुल मिलाकर 17 बार भारत पर आक्रमण किया। महमूद गजनी, सबुक्तिगिन का पुत्र, गजनी वंश का संस्थापक तथा तुर्की गुलाम सेनापति था।
महमूद गजनी ने भारत में पहला युद्ध 1001 ई. में हिन्दुशाई शासक जयपाल के विरुद्ध लड़ा। 1004-1006 के दौरान गजनी ने मुल्तान के शासकों पर धावा बोला। जल्द ही पंजाब भी गजनी के अधीन हो गया । 1014-1019 के मध्य गजनी ने नगरकोट, थानेसर, मथुरा तथा कन्नौज के मंदिरों को लूटकर अपने खजाने को और भी समृद्धि बनाया। सन 1008 में नगरकोट मंदिर पर किया गया आक्रमण उसकी सबसे महान विजय के रूप में जाना जाता है। सन् 1025 में गजनी ने सौराष्ट्र के सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण कर अपने सबसे महत्त्वाकांक्षी अभियान की शुरुआत की। एक भीषण संघर्ष के पश्चात महमूद ने शहर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया जिसमें बचाव पक्ष के 50,000 से अधिक सैनिक हताहत हुए। महमूद ने 15 दिनों बाद तब शहर छोड़ा जब उसे गुजरात के शासक भीम प्रथम द्वारा अपने विरुद्ध की जा रही युद्ध की तैयारियों की जानकारी मिली । भारत पर किए गए उसके आक्रमणों का मुख्य उद्देश्य मध्य एशिया की राजनीति में अपनी महत्ता स्थापित करना था। भारत पर किए गए हमले सिर्फ भारत की दौलत को हथियाने के लिए किए गए थे इस संपदा से मध्य एशिया में उसके विशाल साम्राज्य को संगठित करने में मदद मिलनी थी। उसने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया। गजनी वंश के कुछ शासकों का नियंत्रण पंजाब तथा सिंध के कुछ हिस्सों में था जो 1135 तक चलता रहा। इन आक्रमणों ने भारत की रक्षानीति की दुर्बलताएं उजागर कीं। इन्होंने भविष्य में तुर्कों द्वारा आक्रमणों के लिए भी रास्ते खोल दिए।
मुहम्मद गोरी (शहाबुद्दीन मुहम्मद)
सन 1173 में शहाबुद्दीन मुहम्मद उर्फ मुहम्मद गोरी (1173-1206) गजनी की गद्दी पर बैठा। ख्वारिज्मी साम्राज्य की बढ़ती शक्ति तथा बल का सामना करने में गोरी वंश सक्षम नहीं था। अतः उन्होंने भाँप लिया था कि मध्य एशिया से उन्हें कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। इसने मुहम्मद गोरी को अपनी विस्तारवादी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भारत की ओर मोड़ दिया। 
मुहम्मद गोरी भारत में लूटपाट करने के स्थान पर स्थायी शासन की स्थापना के पक्ष में था। उसके सभी अभियान सुनियोजित थे तथा उसने हर जीते हुए क्षेत्र में एक सेनापति की नियुक्ति की, जो उसकी अनुपस्थिति में शासन का संचालन कर सके। उसके आक्रमणों के परिणामस्वरूप विध्यांचल पर्वत के उत्तर में स्थायी तुर्क साम्राज्य की स्थापना को हुई।
पंजाब तथा सिंध में विजय
मुहम्मद गोरी ने अपना पहला अभियान सन 1175 में छेड़ा। उसने मुल्तान की ओर रुख किया और उसे उसके शासक से मुक्त कराया। इसी अभियान के तहत उसने भाटी राजपूतों से कच्छ को जीता। सन 1178 में उसने पुनः गुजरात पर विजय हासिल करने के लिए आक्रमण किया, किन्तु गुजरात के चालुक्य शासक घीम-द्वितीय ने उसे अहिलवारा के युद्ध में पराजित कर दिया। हालांकि यह हार भी उसे निराश न कर सकी । उसने समझ लिया था कि पंजाब में मजबूत आधार बनाए बिना वह भारत के अन्य हिस्सों को जीत नहीं सकता ।
उसने गजनवी शासकों के खिलाफ पंजाब में अभियान आरंभ किया। परिणामस्वरूप सन 1179-80 में पेशावर और 1186 में लाहौर उसके कब्जे में आ गया। सियालकोट का किला देबोल अगला शिकार बने। इस प्रकार 1190 तक मुल्तान, सिंध तथा पंजाब को अपने अधीन करने के उपरान्त मुहम्मद गोरी ने गंगा के दोआब में प्रवेश के लिए रास्ता साफ कर लिया था।
तराई का प्रथम युद्ध (1191 ई.)
पंजाब पर गोरी का आधिपत्य और गंगा दोआब में अपने साम्राज्य के विस्तार का प्रयास उसे राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान के सामने ले आया। पृथ्वीराज चौहान ने कई छोटे राजपूत शासकों को जीत कर, दिल्ली पर भी अधिकार स्थापित किया था और उसकी योजना पंजाब तथा गंगा घाटी तक विस्तार की थी। भटिंडा के दावे को लेकर युद्ध प्रारंभ हुआ। तराई के मैदान में हुए प्रथम युद्ध (1191) में गोरी की सेना पराजित हुई और वह भी मरते-मरते बचा। पृथ्वीराज चौहान ने भटिंडा को जीत लिया पर उसकी मोर्चाबन्दी करने का प्रयास उसने नहीं किया। इसने गोरी को भारत पर दोबारा आक्रमण के लिए अपनी शक्ति संगठित करने का एक और मौका दे दिया।
तराई का द्वितीय युद्ध (1192 ई.)
इस युद्ध को भारतीय इतिहास का निर्णायक मोड़ माना जाता है मुहम्मद गोरी ने इस आक्रमण के लिए बड़ी चतुराई से तैयारियां कीं तुर्की तथा राजपूत सेनाएं एक बार फिर तराई के मैदान में आमने-सामने आईं। भारतीय सेना हालांकि संख्या में अधिक थी पर तुर्क सेना अधिक सुनियोजित और तेज दौड़ने वाली अश्वरोही टुकड़ी के साथ थी। भारी-भरकम भारतीय सेना किसी भी प्रकार से सुनियोजित, कुशल तथा तेज तुर्की अश्वरोही सेना के मुकाबले की नहीं थी तुर्कों ने अपनी अश्वारोही सेना में दो उत्तम तकनीकों का प्रयोग किया पहली, उन्होंने घोड़ों के पैरों में नाल लगवाई पहनाएं जिससे न सिर्फ घोड़ों की उम्र लंबी हुई, बल्कि उनके खुरों की भी रक्षा हुई तथा दूसरे रकाब का प्रयोग, जिससे घुड़सवारों की घोड़ों पर पकड़ बन सकी और युद्ध में वह दोगुनी मारक क्षमता का उपयोग कर सके। बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक मारे गए। पृथ्वीराज चौहान ने भी भागने का प्रयत्न किया, किन्तु सरस्वती नदी के निकट वह पकड़ा गया तुर्की सेना ने हांसी, सरसुती तथा सामाना के किलों पर कब्जा कर लिया। उसके बाद वे दिल्ली तथा अजमेर की ओर बढ़ चले।
तराई के युद्ध के पश्चात मुहम्मद गोरी अपने विश्वस्त सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथ में भारत की सत्ता सौंप कर गजनी वापस लौट गया सन 1194 में मुहम्मद गोरी वापस भारत लौटा। उसने 50,000 घुड़सवारों के साथ यमुना पार कर कन्नौज की ओर रुख किया। उसने कन्नौज के निकट चंदवार में जयचन्द्र को पराजित किया। इस प्रकार तराई तथा चंदवार के युद्ध के पश्चात उत्तर भारत में तुर्की शासन की नींव पड़ी।
मुहम्मद गोरी के आक्रमण के भारतीय राजनीति पर प्रभाव महमूद गजनवी के आक्रमण की तुलना में दीर्घकालिक थे। जहां महमूद गजनवी का उद्देश्य लूटपाट मात्र था, वहीं मुहम्मद गोरी अपना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करना चाहता था। सन 1206 में हुई उसकी मृत्यु के बाद भी भारत में तुर्क शासन अप्रभावित रहा। उसने अपने पीछे अपने दास सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को नियुक्त किया था , जो दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान बना।
मामलुक सुल्तान
कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन के साथ भारत में मामलुक सुल्तान/गुलाम वंश के युग का प्रारंभ हुआ। मामलूक एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ है स्वामित्व। यह सैन्य अभियानों के लिए उपयोग किए जाने वाले तुर्की गुलामों को निम्न गुलामों से जो घरेलू कार्य अथवा कारीगरों से, अंतर व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता था मामलुक सुल्तानों का शासन 1206 ई. से 1290 ई. तक रहा।
कुतुबुद्दीन ऐबक
कुतुबुद्दीन ऐबक तुर्की गुलाम था जो मुहम्मद गोरी की सेना में उच्च पद तक पहुंचा था सन 1206 में मुहम्मद गोरी की मत्यु के पश्चात भारतीय साम्राज्य का नियंत्रण कुतुबुद्दीन के पास चला गया। गुलाम वंश का संस्थापक, ऐबक उत्तर भारत में प्रथम प्रसिद्ध मुस्लिम शासक था।
ऐबक को राजपूतों अन्य भारतीय सरदारों की ओर से विद्रोह का सामना करना पड़ा था गजनी का शासक तजुद्दीन यल्दौज दिल्ली पर अपना अधिकार समझता था मुल्तानं सिंध का शासक नसीरूद्दीन कबाचा स्वतंत्रता पाने के लिए व्याकुल था। कुतुबुद्दीन ऐबक समझौतों और शक्ति प्रदर्शन द्वारा इन शत्रुओं पर विजय पाने में सफल रहा। उसने यल्दौज को पराजित कर गजनी को जीता। जयचन्द के उत्तराधिकारी हरिश्चन्द्र ने बदायूं तथा कन्नौज से तुर्को को बाहर खदेड़ दिया था। ऐबक ने ये दोनों क्षेत्र पुनः जीत लिए|
कुतुबुद्दीन ऐबक वीर, वफादार तथा नम्र था। उसकी विनम्रता के चलते ही उसे 'लाख बक्श' की उपाधि मिली हुई थी। कई विद्वान ऐबक को भारत में मुस्लिम शासन का वास्तविक संस्थापक मानते हैं
इल्तुतमिश (सन 1210-1236)
सन 1210 में चौगान (पोलो) खेलते समय घोड़े से गिरने से ऐबक की मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के पश्चात कुछ अमीरों ने उसके पुत्र आरामशाह को गद्दी पर बैठा दिया। किन्तु आरामशाह अयोग्य व्यक्ति था तथा तुर्की अमीरों ने उसके खिलाफ विद्रोह आरंभ कर दिया। दिल्ली के तुर्की सरदारों ने बदायूं के शासक (ऐबक के दामाद) इल्तुतमिश को दिल्ली आमंत्रित किया आरामशाह ने बड़ी सेना के साथ लाहौर से दिल्ली आकर उसका सामना किया किन्तु इल्तुतमिश ने उसे पराजित किया 'शम्सुद्दीन' के नाम से गद्दी पर बैठा। दिल्ली सल्तनत को संगठित करने का श्रेय उसी को जाता है ।
जब इल्तुतमिश गद्दी पर बैठा तो वह चारों ओर से समस्याओं से घिरा हुआ था यलदौज, क्वाचा अली मर्दान जैसे अन्य तुर्क सेनापति फिर से सिर उठा रहे थे। जालार और रणथम्भौर के शासक ग्वालियर और कालिंजर शासकों के साथ मिलकर स्वतंत्रता की घोषणा कर चुके थे। इनके अतिरिक्त सल्तनत की उत्तर पश्चिमी सीमा पर चंगेज खान की बढ़ती शक्ति का भी भय था।
इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम स्वयं को संगठित करना प्रारंभ किया। उसने तराइन के मैदान में यल्दौज को 1215 में पराजित किया। सन 1217 में उसने क्वाचा के पांव पंजाब से उखाड़े। सन 1220 में जब चंगेज खाँ ने ख्वारिज साम्राज्य का विनाश किया तो इल्तुतमिश को मंगोलों से प्रत्यक्ष संघर्ष को टालने की आवश्यकता महसूस हुई। अतः जब ख्वारिज के शाह का पुत्र जलालुद्दीन मंगबरानी मंगोलों से बचता हुआ शरण पाने इल्तुतमिश के दरबार में आया तो इल्तुतमिश ने उसे इंकार कर दिया। इस प्रकार इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत को मंगोलों द्वारा होते विनाश से बचाया।
सन 1225 के उपरांत इल्तुतमिश ने अपनी सेनाओं को पूर्व प्रदेश के विरोधों को दबाने के लिए प्रयोग किया। सन 1226-1227 में इल्तुतमिश ने अपने पुत्र के नेतृत्व में विशाल सेना भेजी, जिसने इवाजखान को पराजित कर बंगाल और बिहार को पुनः दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया। राजपूत शासकों के विरुद्ध भी समान अभियान चलाया गया। सन 1226 में रणथम्भौर को जीता तथा सन 1231 तक इल्तुतमिश ने अपना अधिकार मन्दौर, जालौर, बयाना तथा ग्वालियर पर कर लिया था ।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इल्तुतमिश ने ऐबक के छूटे हुए कार्य को पूर्ण किया था दिल्ली सल्तनत अब एक विस्तृत भू-भाग तक फैली थी। इसके अतिरिक्त उसने अपने विश्वासपात्र अधिकारियों का एक समूह तुर्क-ए-चहलगनी (चालीस) बनाया था। वह एक दूरदर्शी शासक था और उसने नवस्थापित दिल्ली सल्तनत को संगठित और नियोजित किया।
इल्तुतमिश ने तुर्क-ए-चहलगनी (चालीस का समूह) की स्थापना की थी। इस समूह में वे अमीर हुआ करते थे जो शासन के प्रबंधन में सुल्तान की सहायता किया करते थे। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात इनके हाथों में काफी शक्ति आ गई थी। कई वर्षों तक वे एक के बाद दूसरे सुल्तानों का चयन करते रहे। अन्ततः बलबन ने इस समूह को नष्ट कर दिया।
इल्तुतमिश ने सफलतापूर्वक दिल्ली के असंतुष्ट अमीरों का सफाया किया। उसने दिल्ली सल्तनत को गजनी, गोर मध्य एशिया से अलग किया। इल्तुतमिश ने बगदाद के अब्बासी खलीफा से बैधता पाने के लिए पत्र भी सन 1229 में हासिल किया था ।
इल्तुतमिश ने प्रशासनिक संस्थानों जैसे 'इक्त', 'सेना तथा 'सिक्का' व्यवस्था को रूप देने के लिए उल्लेखनीय कार्य किए उसने सल्तनत को दो सिक्के दिए -चांदी का टंका तथा तांबे का जीतल। अपने अधीनस्थ क्षेत्रों पर बेहतर नियंत्रण स्थापित करने के लिए इल्तुतमिश ने व्यापक स्तर पर अपने तुर्क अधिकारियों को (वेतन के बदले भूमि समझौता) इक्ता दान किए। इक्ता को पाने वाले को इक्तदार कहा जाता था तथा वे अपने अधीन क्षेत्रों से राजस्व वसूल करते थे। इसके द्वारा वे सत्ता की सेवा प्रदान करने के लिए एक सेना का रख-रखाव किया करते थे, कानून तथा व्यवस्था का पालन करवाया करते थे तथा अपने खर्चों की भरपाई किया करते थे। इल्तुतमिश ने दोआब के आर्थिक संभावनाओं को पहचाना और मुख्यतः उसी क्षेत्र में इक्ता बांटे गए। इसने इल्तुतमिश को उत्तर भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित क्षेत्रों में से एक पर वित्तीय और प्रशासनिक नियंत्रण के प्रति आश्वस्त किया।
रजिया (1236-40 ई०)
अपने अंतिम दिनों में इल्तुतमिश के सम्मुख उत्तराधिकारी की मुख्य समस्या थी। इल्तुतमिश ने अपने किसी भी पुत्र को सुल्तान बनने के काबिल नहीं समझा। उसने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। किंतु उसकी मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र रूकुनुद्दीन फिरोज सेना के कुछ अधिकारियों की सहायता से गद्दी पर बैठ गया, और दिल्ली की जनता के समर्थन से तथा कुछ सैन्य अधिकारियों के सहयोग से रजिया गद्दी पर बैठ गई।
अपनी खूबियों के बावजूद रजिया बेहतर शासन नहीं कर पाई, क्योंकि मुख्यतः उसने गैर तुर्को को कुलीन वर्ग के बराबरी का दर्जा देकर तुर्की अमीरों में विरोध पैदा कर दिया। इसमें सबसे मुख्य उत्तेजित करने वाली बात अबीसियाई मलिक जमालुद्दीन याकूत को अमीर-ए-अखनूर (घोड़ों का मालिक) नियुक्त करना रहा। कई अन्य महत्त्वपूर्ण पदों पर अन्य गैर तुर्कों की नियुक्ति ने भी आग में घी का काम ही किया।
विद्वान मानते हैं कि महिला होने के बावजूद वह दूसरे के हाथों की कठपुतली नहीं बनना चाहती थी। अतः सरदारों ने उसके क्षेत्रों में विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया। उन्होंने उसे महिला की मर्यादा भंग करने और अबीसियाई सरदार याकूब के साथ अति करीबी होने का आरोप लगाया। वह सरदारों द्वारा पराजित हुई और मारी गई। इस प्रकार उसका शासन काल छोटा रहा तथा 1240 में समाप्त हो गया।
नसीरूद्दीन महमूद (1246-66 ई.)
सुल्तान तथा तुर्की सरदारों 'चहलगनी' के बीच सत्ता का संघर्ष जो रजिया के समय से प्रारंभ हुआ था, वह चलता रहा। रजिया की मत्यु के बाद इन चहलगनियों की शक्ति इतनी बढ़ गई कि वे राजा को गद्दी पर बैठाने और उतारने के लिए बहुत हद तक काबिल हो गए बेहराम शाह (1240-42) तथा मसूद शाह (1242-44) क्रमशः सुल्तान बनाए तथा हटाए गए। इसके पश्चात सन 1246 में उलुग खान (कालांतर में जिसे बलबन के नाम से जाना गया) ने एक प्रयोग किया तथा युवा नसीरूद्दीन (इल्तुतमिश का पोता) को सुल्तान बनाकर खुद उसका नाइब बना अपनी स्थिति को और सुदढ़ बनाने के लिए उसने अपनी पुत्री का विवाह नसीरूद्दीन से कर दिया। सुल्तान नसीरूद्दीन मसूद 1265 में मारा गया। इब्नबतूता तथा इलामी के अनुसार बलबन ने अपने राजा को जहर देकर मारा तथा उसके सिंहासन पर कब्जा कर लिया।
बलबन (1266-87 ई.)
सुल्तान तुर्की सरदारों के बीच सत्ता का संघर्ष तब तक चलता रहा जब तक इतिहास में बलबन के नाम से प्रसिद्ध उलुग खान ने सत्ता का केन्द्रीकरण करके सन 1266 में सिंहासन पर कब्जा नहीं कर लिया। जब बलबन सुल्तान बना, उसकी स्थिति मजबूत नहीं थी। कई तुर्क सरदार उसके विरोधी हो चुके थे। मंगोल दिल्ली सल्तनत पर कब्जा करने का अवसर तलाश रहे थे। सुदूर प्रांतों के शासक स्वतंत्र होने की कोशिश कर रहे थे। वहीं, भारतीय शासक भी विद्रोह करने के लिए छोटे से मौके की तलाश में थे ।
दिल्ली तथा दोआब क्षेत्र में कानून और व्यवस्था की स्थिति सोचनीय थी गंगा- यमुना दोआब अवध के मध्य सड़कों पर डकैतों और लुटेरों का वर्चस्व था जिस वजह से पूर्वी क्षेत्रों में यातायात असंभव हो चला था। कुछ राजपूत जमींदारों ने इन क्षेत्रों में अपने किले बनवाकर सरकार के प्रति विद्रोह दर्शाया था मेवाती इतने निर्भीक हो चले थे कि बाहरी दिल्ली क्षेत्र में भी लोगों को लूट लिया करते थे। इन तत्वों से निबटने के लिए बलबन ने कठोर नीति अपनाई, मेवात में कई मारे गए। राजपूतों के मजबूत गढ़ बदायूं के आसपास का क्षेत्र नष्ट कर दिया गया।
बलबन ने निरकुंश तरीके से शासन किया तथा सुल्तान के रूप में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए बहुत मेहनत की उसने किसी भी कुलीन वर्ग के व्यक्ति के पास ज्यादा शक्ति अर्जित नहीं होने दी। उसने राजत्व के सिद्धांत की भी स्थापना की। इतिहासकार बरनी, जो स्वयं भी तुर्की विद्वानों में श्रेष्ठ था, के अनुसार बलबन कहता था, जब भी मैं नीच कुल में जन्मे, नीच व्यक्ति को देखता हूं तो मेरी आंखें सुलग उठती है तथा गुस्से में मैं तलवार उठा लेता हूं (मारने के लिए)। हमें नहीं पता कि बलबन ने वास्तव में ऐसा कहा था किन्तु गैर तुर्कों के प्रति उसके विचार इसी प्रकार के थे। बलबन अपनी सत्ता किसी से नहीं बांट सकता था, यहाँ तक कि परिवार वालों से भी नहीं ।
बलबन चहलगनी की शक्तियां नष्ट करने के लिए कटिबद्ध था। स्वयं को सजग रखने के लिए बलबन ने हर विभाग में गुप्तचर नियुक्त किए। उसने एक मजबूत केंद्रीय सेना का गठन किया, जो आंतरिक विद्रोहों से भी लड़ सके तथा पंजाब की ओर रुख कर रहे तथा दिल्ली सल्तनत के लिए गंभीर खतरा बन रहे मंगोलों को भी माकूल जवाब दे सके। उसने सैन्य विभाग का (दीवान-ए-अज) का पुनर्गठन किया तथा विद्रोहों का दमन करने के लिए देश के विभिन्न हिस्सों में सेना की नियुक्ति की मेवात, दोआब, अवध और कौशल के विद्रोह निर्ममतापूर्वक कुचल दिए गए। बलबन ने पूर्वी राजपूताना क्षेत्र अजमेर और नागौर पर विजय पाई किन्तु ग्वालियर और रणथम्भौर पर विजय हासिल करने में वह नाकामयाब रहा। सन 1279 में मंगोलों के खतरों से उत्साहित होकर और सुल्तान की बढ़ती आयु देखकर बंगाल के शासक तुगरिल बेग ने विद्रोह कर, सुल्तान की उपाधि धारण की तथा अपने नाम का खुतबा पढ़वाया। बलबन ने अपनी सेना को बंगाल भेजा और तुरगरिल मारा गया परिणामस्वरूप उसने अपने पुत्र बुगरा खान को बंगाल का शासक नियुक्त किया।
इन सब कठोर निर्णयों द्वारा बलबन ने स्थिति को नियंत्रित किया। लोगों को अपनी सत्ता की शक्ति तथा भव्यता से प्रभावित करने के लिए बलबन ने एक वैभवशाली दरबार बनाया। उसने दरबार में हंसना तथा चुटकुले सुनना बंद कर दिया तथा शराब का सेवन भी बंद कर दिया, जिससे कोई भी उसे आरामवाली अवस्था में न देख ले। उसने दरबार में सिजदा (सलाम) तथा पाइबोस (राजा के कदम चूमने ) जैसी प्रथाओं पर बल दिया।
बलबन ने विस्तार के स्थान पर संगठन की नीति अपनाई। उसने राजपद के नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया कुलीनों तथा सुल्तान के मध्य रिश्तों को पुनः परिभाषित किया । इन तरीकों द्वारा ही बलबन ने दिल्ली सल्तनत को मजबूती प्रदान की।
बलबन निस्संदेह दिल्ली सल्तनत के मुख्य निर्माताओं में से एक था, विशेषकर सरकार और उसके संस्थानों राजा की शक्तियों को सुदृढ़ कर बलबन ने दिल्ली सल्तनत को मजबूती प्रदान की। किन्तु फिर भी वह मंगोलों के आक्रमणों से उत्तर भारत को बचा नहीं पाया और तो और गैर तुर्कों को महत्त्वपूर्ण पदों और अधिकारों से विमुक्त कर मात्र कुछ ही समूहों के बीच अधिकारों/शक्तियों के वितरण ने अन्य लोगों में उसके प्रति असंतोष उत्पन्न किया। इसने उसकी मृत्यु के पश्चात् नए संघर्षों को जन्म दिया। 
बलबन की मृत्यु 1287 में हो गई उसकी मृत्यु के उपरान्त कुलीनों ने उसके पोते कैकवाबाद को गद्दी पर बैठाया। किन्तु जल्द ही उसके पुत्र कैमूर ने उसे सत्ता से अलग कर दिया, जो स्वयं मात्र तीन माह तक ही शासन कर सका। बलबन के शासन के दौरान फिरोज उत्तर-पश्चिमी सैन्य अभियानों का संचालक था तथा उसने मंगोलों के खिलाफ कई सफल अभियान लड़े थे। उसे दिल्ली में बुलाया गया तथा अर्ज- ए - मुमालिक (युद्ध- मंत्री) बनाया गया। उसने 1290 में एक कड़ा कदम उठाकर कैमूर की हत्या कर दी तथा खुद गद्दी पर बैठ गया। खिलजी कुलीनों के एक वर्ग ने खिलजी वंश की नींव डाली कुछ विद्वान इसे वांशिक क्रांति के रूप में परिभाषित करते हैं इसने तथाकथित गुलाम वंश का अन्त किया तथा फिरोज जलालुद्दीन खिलजी के रूप में सिंहासन पर बैठा।
खिलजी (1290-1320 ई.)
जलालुद्दीन खिलजी ने खिलजी वंश की नींव डाली। जलालुद्दीन 70 वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा। हालांकि जलालुद्दीन ने अपने प्रशासन में पूर्व कुलीनों को बरकरार रखा, किन्तु खिलजियों के उदय ने महत्त्वपूर्ण कार्यालयों में कुलीन वर्ग में गुलामों के वर्चस्व को कम कर दिया। जलालुद्दीन का शासन मात्र 6 वर्ष ही रहा। उसने बलबन द्वारा अपनाए कड़े नियमों को भी ढीला किया वह सल्तनत का पहला ऐसा सुल्तान था, जिसने विचार दिया कि शासन जनता के समर्थन से चलना चाहिए तथा चूंकि भारत में हिन्दू आबादी अधिक है अतः यह सच्चा इस्लामिक राज्य नहीं हो सकता।
जलालुद्दीन खिलजी ने उदारता की नीति अपनाकर अभिजात्य वर्ग का समर्थन हासिल किया। उसने कड़े दंड वाली नीति का त्याग किया यहां तक कि उन्हें भी कड़ा दंड नहीं दिया, जिन्होंने उसके खिलाफ विद्रोह किया था उसने न सिर्फ उन्हें क्षमादान दिया, बल्कि उनका विश्वास जीतने के लिए सम्मानित भी किया। हालांकि उसके कई समर्थकों ने उसे कमजोर सुल्तान की संज्ञा दे डाली थी। जलालुद्दीन खिलजी की सभी नीतियां अलाउद्दीन खिलजी द्वारा पलट दी गई, जिसने अपना विरोध करने वाले को कड़ा दंड देने का प्रावधान किया था।
अलाउद्दीन खिलजी (1296 - 1316 ई. )
अलाउद्दीन खिलजी, जलालुद्दीन खिलजी का महत्त्वाकांक्षी भतीजा और दामाद था। उसने अपने चाचा की मदद सत्ता पाने की थी तथा अमीर-ए-तुजुक (उत्सवों का शहंशाह) के रूप में नियुक्त हुआ था । जलालुद्दीन के शासनकाल में अलाउद्दीन की दो प्रमुख जीत थीं सन 1292 में भीलसा (विदिशा) को अधीन करने के उपरान्त कारा के साथ- साथ उसे अवध का इक्ता प्रदान किया गया था। वह अरिजि-ए-मुमालिक (युद्ध मंत्री) के रूप में नियुक्त हुआ था। सन 1294 में पहली बार दक्षिण की ओर तुर्क साम्राज्य का विस्तार किया तथा देवगिरि को अपने अधीन किया इस सफल अभियान ने साबित कर दिया कि अलाउद्दीन खिलजी एक सक्षम सेनाध्यक्ष और कुशल योजनाकार था। जुलाई 1296 में उसने अपने चाचा तथा ससुर जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी तथा स्वयं गद्दी पर बैठ गया।
अलाउद्दीन ने बलबन के शासन की निष्ठुर नीतियां पुनः लाने का निर्णय लिया। उसने कुलीन वर्ग की स्वतंत्रता छीनी शासन में उलेमाओं का हस्तक्षेप बंद किया। उसे अपने शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में कई विद्रोहों का भी सामना किया। 
तारीख-ए-फिरोजशाही के लेखक बरनी के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी ने महसूस किया कि इन विद्रोहों के चार प्रमुख कारण हैं-
  1. गुप्तचर व्यवस्था की अयोग्यता,
  2. शराब का आम उपयोग,
  3. कुलीनों के मध्य सामाजिक व्यवहार और आपस में विवाह संबंध, तथा
  4. कुछ कुलीनों के पास अत्यधिक संपत्ति।
इन विद्रोहों की कड़ियों को तोड़ने के लिए अलाउद्दीन ने कुछ नियम बनाए तथा उन्हें लागू किया-
  • वे परिवार जिन्हें मुफ्त में जमीन मिली हुई है, वे अपने स्वामित्व वाली वस्तुओं के लिए करों का भुगतान करेंगे।
  • सुल्तान ने गुप्तचर व्यवस्था को पुनः संगठित किया तथा उसे और प्रभावी बनाने के लिए समुचित उपाय किए।
  • शराब का प्रयोग प्रतिबंधित किया। तथा
  • शासन की अनुमति के बगैर अभिजात्य वर्गों के आपस में सामाजिक समारोह तथा शादी-विवाह पर रोक लगा दी।
  • अलाउद्दीन खिलजी ने इलाके जीतने की महत्त्वाकांक्षा और मंगोलों से देश की रक्षा के लिए एक विशाल स्थायी सेना की स्थापना की।
अलाउद्दीन खिलजी के बाजार सुधार
बाजार पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए अलाउद्दीन द्वारा किए गए उपाय सबसे महत्त्वपूर्ण नीतियों में से एक है। चूंकि अलाउद्दीन एक विशाल सेना रखना चाहता था, अतः उसने आवश्यक वस्तुओं के मूल्य कम किए तथा निर्धारित किए मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए अलाउद्दीन ने विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न बाजार बनाए। ये थे अनाज बाजार (मंडी), कपड़ा बाजार (सराय आदिल) तथा घोड़ों/जानवरों/ गुलामों का बाजार। अलाउद्दीन ने एक पर्यवेक्षक शाहना-ए-मंडी की नियुक्ति की, जिसके अधीन एक सूचनाधिकारी होता था। शहाना-ए-मंडी के अतिरिक्त, अलाउद्दीन 'बरीद' (सूचना अधिकारी) तथा मुहियन (गुप्तचर) के द्वारा भी बाजार की दैनिक जानकारी पाता था। सुल्तान के आदेशों का उल्लंघन का अर्थ होता था कड़े से कड़ा दंड, जैसे राज-धानी से निष्कासन, आर्थिक दंड, जेल तथा अंगभंग।
घोड़ों के मूल्यों का नियंत्रण सुल्तान के लिए बहुत आवश्यक था, क्योंकि अच्छे घोड़ों की आपूर्ति के बिना सेना की कार्यकुशलता सुनिश्चित नहीं हो सकती थी। दिल्ली बाजार में घोड़ों के विक्रेताओं तथा दलालों द्वारा घोड़ों की खरीददारी से उनके कम मूल्य सुनिश्चित किए गए।
दिल्ली सल्तनत का विस्तार 
अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में दिल्ली सल्तनत की सीमाएं उत्तर भारत को पार कर अपनी सर्वोच्च ऊंचाई तक पहुंची।
अलाउद्दीन ने क्षेत्रीय विस्तार अभियान की शुरुआत गुजरात के खिलाफ की। अलाउद्दीन खिलजी अपने साम्राज्य विस्तार के साथ-साथ गुजरात की विशाल संपदा के प्रति भी आकर्षित था। गुजरात की दौलत से उसके आगामी अभियानों में मदद होती तथा उसके समुद्री तट से उसकी सेना के लिए अरबी घोड़ों की आपूर्ति सुनिश्चित हो जाती। सन 1299 में अलाउद्दीन के दो प्रमुख सेनापतियों उलुगखान तथा नुसरत खान ने गुजरात की ओर रुख किया। गुजरात का शासक राय करन जान बचाकर भाग गया तथा सोमनाथ मंदिर जीत लिया गया। विशाल मात्रा में लूट का माल इकट्ठा किया गया यहां तक कि सम्पन्न मुस्लिम व्यापारी भी नहीं बख्शे गए कई गुलाम बंदी बनाए गए। उनमें से एक मलिक काफूर था, जो बाद में जाकर खिलज़ी सेना का मुख्य सेनापति बना तथा उसने दक्षिण अभियानों का संचालन किया गुजरात अब दिल्ली सल्तनत का ही हिस्सा था।
गुजरात पर अधिकार स्थापित करने के उपरान्त अलाउद्दीन ने अब अपना ध्यान राजस्थान पर केंद्रित किया उसका पहला लक्ष्य रणथम्भौर था। रणथम्भौर का किला राजस्थान का सबसे प्रतिष्ठित किला माना जाता था तथा पूर्व में वह जलालुद्दीन खिलजी को चुनौती दे चुका था। राजपूतों का नैतिक मनोबल तोड़ने के लिए रणथम्भौर को जीतना अत्यंत ही आवश्यक था। रणथम्भौर पर आक्रमण करने का तत्कालीन कारण राजपूत शासक हमीरदेव द्वारा दो विद्रोही मंगोल सैनिकों को शरण देना था तथा उनको खिलजी शासकों को देने से इंकार कर दिया था अतः रणथम्भौर के खिलाफ मोर्चा खोला गया। प्रारंभ में खिलज़ी सेना को नुकसान हुआ। यहां तक कि नुसरत खान को अपनी जान गंवानी पड़ी अंततः अलाउद्दीन खिलजी को युद्ध के मैदान में खुद आना पड़ा तथा सन 1301 में अलाउद्दीन ने किले को जीत लिया।
सन 1303 में अलाउद्दीन ने एक अन्य शक्तिशाली प्रदेश चित्तौड़ को जीता। कुछ विद्वानों के अनुसार अलाउद्दीन ने राजा रतन सिंह की सुंदर पत्नी पद्मावती के प्रति आकर्षित होकर चित्तौड़ पर हमला किया था। हालांकि कुछ इतिहासकार इस कथा को मानने से इंकार करते हैं, क्योंकि इस गाथा का वर्णन जायसी द्वारा 200 वर्ष बाद पद्मावत में पहली बार किया गया। अमीर खुसरो के अनुसार सुल्तान ने आम जनता के कत्लेआम की आज्ञा दी थी। अपने पुत्र खिजरखान के नाम पर उसने चित्तौड़ का नाम खिजराबाद कर दिया। अलाउद्दीन को दिल्ली वापस आना पड़ा, क्योंकि मंगोल सेना दिल्ली की ओर कूच कर रही थी।
सन 1305 में एन-उल-मुल्क के नेतृत्व में खिलजी सेना ने मालवा पर अधिकार स्थापित किया। अन्य राज्य जैसे उज्जैन, मंडू, धर तथा चंदेरी भी जीत लिए गए। मालवा विजय के उपरांत अलाउद्दीन ने मालिक काफूर को दक्षिण में भेजा स्वयं सिवाना पर आक्रमण किया। सिजाना के शासक राजा शीतल देव ने दुर्ग की वीरतापूर्वक रक्षा की, किन्तु अंततः पराजित हुआ। सन 1311 में अन्य राजपूत प्रदेश जालौर भी सल्तनत का हिस्सा था। इस प्रकार 1311 तक अलाउद्दीन ने राजपूतों के सभी क्षेत्रों को जीत लिया तथा उत्तर भारत का शहंशाह बन गया।
दक्कन तथा दक्षिण भारत 
अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षा उत्तर भारत पर अधिकार के साथ पूर्ण नहीं हुई थी। वह दक्षिण को जीतने के लिए भी कटिबद्ध था। दक्षिण भारत की सम्पत्ति ने उसे आकर्षित किया। दक्षिण में युद्ध के लिए अलाउद्दीन के विश्वसनीय सेनापति मलिक काफूर के नेतृत्व में फौज को भेजा गया, जो नायब का कार्य भार संभाले था। सन 1306- 07 में अलाउद्दीन ने दक्कन में पहला अभियान प्रारंभ किया उसका पहला निशाना (गुजरात का पूर्व शासक) रायकरन था जो अब बगलाना का शासक था तथा खिलजी से पराजित हुआ। उसका अगला निशाना देवगिरि का शासक रामचन्द्र था, जिसने पहले सुल्तान को राशि देने का वादा किया था, किन्तु कभी दी नहीं। रामचंद्र ने हल्के संघर्ष के उपरान्त मलिक काफूर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तथा उसके साथ सम्मानजनक व्यवहार हुआ। उसे गुजरात का एक जिला प्रदान किया गया तथा उसकी एक पुत्री का विवाह अलाउद्दीन से हुआ था। अलाउद्दीन ने रामचंद्र के प्रति गरमजोशी का परिचय दिया, क्योंकि वह दक्षिण के अभियानों में रामचंद्र को साथी बनाना चाहता था।
सन 1309 के उपरान्त मलिक काफूर दक्षिण भारत के खिलाफ अभियान पर रवाना हुआ। पहला आक्रमण तेलंगाना क्षेत्र में वारंगल के शासक प्रताप रुद्रदेव के खिलाफ था।
घेराबंदी कई महीनों तक चली तथा तब समाप्त हुई जब प्रताप रुद्रदेव के सुल्तान को अपनी सम्पत्ति में हिस्सा देने तथा सुल्तान को शुल्क अदा करने का वादा किया।
दूसरा अभियान द्वार समुद्र तथा मालबार (वर्तमान कर्नाटक तमिलनाडु) के खिलाफ था। द्वार समुद्र के शासक वीर बल्ला तृतीय यह समझने के पश्चात कि मलिक काफूर को हराना असंभव है, बिना किसी संघर्ष के सुल्तान को शुल्क अदा करना स्वीकार कर लिया। मालबार (पांड्य राज्य) की यदि बात करें तो सीधा संघर्ष नहीं हो सका हालांकि मलिक काफूर ने समृद्धि मंदिरों सहित बहुत ज्यादा लूटपाट की इनमें चिदम्बरम का मंदिर मुख्य था। अमीर खुसरों के अनुसार काफूर 512 हाथियों, 7000 घोड़ों तथा 500 मन बहुमूल्य पत्थरों के साथ लौटा था। सुल्तान ने मलिक को साम्राज्य का नायब बनाकर पुरस्कृत किया था। मलिक के नेतृत्व में अलाउद्दीन की सेनाओं ने दक्कन प्रदेशों में अपना नियंत्रण कायम रखा।
1316 मे अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात दिल्ली सल्तनत में पुनः भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई थीं। कुछ दिनों के लिए मलिक काफूर सिंहासन पर बैठा पर कुतुबुद्दीन मुबारकशाह ने उसे हटा दिया। कुतुबुद्दीन मुबारक शाह भी जल्द ही मारा गया तथा खुसरो ने गद्दी हासिल की। हालांकि उसका शासन भी अधिक लम्बा न चल सका तथा गयासुद्दीन तुगलक के नेतृत्व में कुछ असंतुष्ट अधिकारियों ने उसे युद्ध में पराजित कर मार डाला। इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के मात्र चार वर्ष बाद ही खिलजी साम्राज्य का पतन हो गया।
तुगलक वंश (1320-1412 ई.)
तुगलक वंश का संस्थापक गजनी मलिक था, जिसने ग्यासुद्दीन तुगलक के रूप में सन् 1320 में सिहांसन हासिल किया था तथा जिसका वंश 1412 ई. तक सत्ता में रहा। अलाउद्दीन के शासन काल में ग्यासुद्दीन तुगलक ने विशिष्ट पदों पर कार्य किया था (1325 ई.) छोटे से शासन काल के उपरांत ग्यासुद्दीन तुगलक की मृत्यु हो गई तथा उसका पुत्र मुहम्मद तुगलक गद्दी पर बैठा। तुगलकों के शासन काल में दिल्ली सल्तनत और संगठित हुई सल्तनत के सीधे नियंत्रण में कई नए क्षेत्र भी आए।
दक्कन और दक्षिण प्रदेश
अलाउद्दीन द्वारा विजित दक्कन के क्षेत्रों ने शुल्क अदा करना बंद कर दिया था तथा स्वतंत्रता का झंडा उठा दिया था। मुहम्मद बिन तुगलक ने राजकुमार होते हुए (जूना खान के नाम से प्रचलित) राय रुद्रदेव के खिलाफ अभियान छेड़ा, जो लम्बे युद्ध के पश्चात् पराजित हुआ। वारंगल अब दिल्ली सल्तनत के सीधे नियंत्रण में था। मालबार भी पराजित हुआ अब पूरे तेलंगाना क्षेत्र को प्रशासनिक टुकड़ियों में बांटा तथा सल्तनत का हिस्सा बनाया मुहम्मद तुगलक ने तो दिल्ली के स्थान पर देवगिरी को राजधानी बनाने का निर्णय लिया उसका नाम दौलताबाद रखा गया। वास्तव में वह उत्तर क्षेत्र को यहीं से नियंत्रित करना चाहता था। व्यापक संख्या में कुलीन वर्ग, धार्मिक व्यक्ति और शिल्पी नई राजधानी में स्थानांतरित किए गए। प्रतीत होता है कि उसका इरादा दौलताबाद को दिल्ली के साथ-साथ दूसरी राजधानी बनाने का था। कालान्तर में यह योजना त्याग दी गई हालांकि इस योजना ने दक्षिण तथा उत्तर के मध्य रिश्तों में सुधार किया। क्षेत्रीय विस्तार के साथ-साथ सामाजिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक संबंध भी बने और फले-फूले।
पूर्वी भारत
जाजनगर उड़ीसा के शासक भानुदेव द्वितीय ने वारंगल के राय रुद्रदेव की सहायता सुल्तानों के खिलाफ युद्ध में की थी। उलुग खान के नेतृत्व में सन् 1324 में भानुदेव द्वितीय पराजित हुआ और उसके राज्य को भी सम्मिलित कर लिया गया। बंगाल में सुल्तान के खिलाफ दरबारियों में असंतोष था। असंतुष्टों ने राजकुमार को आमंत्रित किया कि वहां के शासक पर हमला करें बंगाल की सेना पराजित हुई तथा नसीरुद्दीन नामक सरदार को गद्दी सौंप दी गई।
राजधानी परिवर्तन
मुहम्मद तुगलक के सर्वाधिक विवादास्पद निर्णयों में एक था, दिल्ली से देवगिर (दौलताबाद) राजधानी परिवर्तन करना। डॉक्टर मेंहदी हसन के अनुसार सुल्तान दोनों राजधानियों को बरकरार रखना चाहता था। बर्नी के अनुसार सन 326-27 मे सुल्तान ने अपनी राजधानी स्थानांतरित करने का निर्णय लिया क्योंकि वह केंद्रीय स्थिति में स्थित था। इब्नबतूता के अनुसार दिल्ली की जनता सुल्तान को गालियों वाले पत्र भेजा करती थी। अतः उन्हें दंडित करने के लिए सुल्तान ने राजधानी परिवर्तन का निर्णय लिया। इमामी कहते हैं कि वह स्थान उत्तर-पश्चिमी सीमा से काफी दूर था अतः मंगोलों की पहुंच से परे था। विभिन्न मतों की वजह से इस स्थानांतरणा की मुख्य वजह पर पहुंचना बहुत ही मुश्किल है ।
दिल्ली के समस्त लोगों को दिल्ली छोड़ने को नहीं कहा गया था, मात्र उच्च वर्ग जैसे शेख, अभिजात्य वर्ग, उलेमा इत्यादि ही दौलताबाद ले जाए गए थे बाकी लोगों को ले जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। मुहम्मद तुगलक ने हालांकि दिल्ली से देवगिर तक सड़क का निर्माण किया था तथा विश्राम ग्रहों को भी स्थापित किया था, किन्तु लोगों के लिए सफर आसान नहीं था। कष्टदायक यात्रा और भयानक गरमी की वजह से काफी लोग मर गए। बढ़ते असंतोश को देखकर तथा यह भांपकर कि दक्षिण से उत्तर भारत नियंत्रित नहीं हो पाएगा, सुल्तान ने दौलताबाद छोड़ने का निर्णय ले लिया।
उत्तर पश्चिम
नियमित अंतराल पर दिल्ली सल्तनत पर मंगोलों के आक्रमण होते रहते थे। सन 1326- 27 में तरमशरीन खान के नेतृत्व में बड़ा मंगोली आक्रमण हुआ। मुहम्मद तुगलक ने सीमाओं को सुरक्षित करने का निर्णय लिया लाहौर से कलानौर, पेशावर तक जीत लिए गए तथा नया प्रशासनिक नियंत्रण लागू किया गया इसके अतिरिक्त सुल्तान ने कराचिल क्षेत्र (वर्तमान हिमाचल) तथा कंधार को भी जीतने का प्रयत्न किया, किन्तु सफल नहीं हुआ। वास्तव में इन योजनाओं में बहुत नुकसान हुआ।
नई नीतियां अपनाने के विषय में मुहम्मद तुगलक अच्छा था। उसने कृषि के विकास के लिए नए विभाग का निर्माण कराया। जिसे 'दीवान-ए-कोही, कहा गया किसानों को जुताई के लिए बीज लेने की सहायता प्रदान की गई फसल बरबाद होने पर भी यह ऋण दिया जाता था। अन्य महत्त्वपूर्ण सुधार चांदी की कमी से पार पाने के लिए प्रतीकात्मक मुद्रा का चलन था। हालांकि यह योजना असफल हुई तथा इसने सल्तनत को भारी आर्थिक नुकसान पहुंचाया।
मुहम्मद ने चांदी के सिक्के (टका) के स्थान पर तांबे की मुद्रा (जितल) चलाई तथा आदेश दिया कि इसे टका के रूप में स्वीकार किया जाए। हालांकि प्रतीकात्मक मुद्रा का विचार भारत के लोगों के लिए नया था तथा व्यापारियों आम लोगों के लिए इसे स्वीकारना अत्यंत कठिन था। शासन ने भी सिक्कों की गढ़ाई के विषय में उचित सावधानी नहीं बरती। सरकार लोगों को नए सिक्के ढालने से रोक न सकी तथा जल्द ही बाजार में नकली प्रतीकात्मक मुद्राओं की बाढ़ आ गई। बर्नी के अनुसार लोगों ने सिक्के घर मे ही ढालने प्रारंभ कर दिए थे। अतः सामान्य जनता के लिए सरकारी सिक्कों तथा लोगों द्वारा ढले सिक्कों में अंतर करना मुश्किल हो रहा था। अंततः सुलतान को यह योजना वापस लेनी पड़ी।
मुहम्मद बिन तुगलक के पश्चात उसका चचेरा भाई फिरोज तुगलक सुल्तान बना। उसके शासन काल में कोई भी नया क्षेत्र नहीं जीता गया उसने विशाल साम्राज्य को बनाए रखने के लिए बहुत प्रयत्न किए। हालांकि दिल्ली पर शासन की पकड़ फिरोज के उत्तराधिकारियों के समय में ढीली होने लगी थी। सन 1398 में तैमूर के हमलों ने सल्तनत को हिला दिया। तुगलक साम्राज्य के अंतिम दिनों में 1412 ई. में सल्तनत उत्तर भारत के एक छोटे से हिस्से में सिमट गई थी। कई राज्यों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। पूर्व में उड़ीसा तथा बंगाल पूर्ण स्वायत्तता घोषित कर चुके थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कई हिस्सों में एक नए वंश का उदय हुआ शरकी प्रशासन। दक्कन तथा दक्षिण में विजयनगर और बहमनी राजनीतिक शक्तियां बन गईं। पंजाब का बड़ा हिस्सा स्वतंत्र सरदारों द्वारा जीत लिया गया गुजरात और मालवा स्वतंत्र हो गए। राजस्थान के राजपूत सल्तनत को अपना स्वामी स्वीकार नहीं करते थे।
प्रतीकात्म्क मुद्रा
मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा आरंभ की गई अन्य विवादास्पद योजना प्रतीकात्मक मुद्रा का प्रयत्न था। बर्नी के अनुसार सुल्तान ने प्रतीकात्मक मुद्रा का प्रचलन प्रारंभ किया, कि अति विस्तारवादी योजनाओं की वजह से तथा अत्यधिक उदारता की वजह से खजाना खाली हो चुका था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि उन दिनों विश्व स्तर पर चांदी की कमी थी, इसलिए भारत भी इससे अछूता नहीं था अतः सुल्तान को चांदी के स्थान पर तांबे के सिक्के चलाने पड़े ।
सैय्यद वंश 1414-1450 ई.
1398 में दिल्ली की सेना को पराजित करने के उपरांत तैमूर ने खिज्रखान को मुल्तान का शासक नियुक्त किया। खिजखान ने सुल्तान दौलत खान को पराजित कर सैय्यद वंश की स्थापना की। उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की बल्कि वह रायत-ए- आला से ही संतुष्ट था। तारीख-ए-मुबारकशाही के लेखक याहया सिरहिंदी दावा करते हैं कि सैयद वंश का संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद साहब का वंशज था। 
खिजरखान, सैय्यद शासन का सबसे सक्षम शासक था, खिज़खान की मृत्यु के पश्चात मुबारक शाह (1412-34) तथा मुहम्मद शाह (1434-45 ई.) तक क्रमशः दिल्ली की गद्दी पर बैठे। इन शासकों ने कटेहर, बदायूं, इटावा, पटियाली, ग्वालियर, काम्पिल, नागौर तथा मेवात जैसे विद्रोही क्षेत्रों को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया, किन्तु कुलीन वर्ग के षड़यंत्र के चलते वे ऐसा न कर सके। 
सन 1445 में आलम शाह गद्दी पर बैठा। वह एकदम निकम्मा सुल्तान साबित हुआ। आलमशाह के वजीर हमीद खां ने बहलोल लोदी को सैन्य अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित किया तथा यह महसूस करने के उपरान्त कि अब वह अधिक समय तक सुल्तान न रह सकेगा, आलम शाह बदायूं भाग गया।
लोधी वंश तथा सल्तनत का पुर्नगठन (1451-1526 ई.)
कुछ सरदारों की मदद से बहलोल लोदी ने सेना का कार्यभार संभाला ( 1451- 1484 ई.) तथा सुल्तान बन गया। इस प्रकार उसने लोधीवंश की नींव डाली जो अफगान के शासक थे। लोधी शासक दिल्ली सल्तनत के आखिरी शासक थे तथा प्रथम अफगानी शासक थे।
सुल्तान बहलोल लोदी सक्षम सेनापति था वह इस सत्य से भलीभांति परिचित था कि सल्तनत पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए उसे अफगान कुलीनों की आवश्यकता पड़ेगी। अफगान अमीर सुल्तान से अपेक्षा करते थे कि वह उनके साथ पूर्ण शासक के बजाय समान सहयोगी जैसा बर्ताव करे उन्हें प्रसन्न करने के लिए बहलोल ने स्वयं घोषणा की कि वह सुल्तान नहीं है, बल्कि अफगान साथियों में से ही एक है। न तो लोदी गद्दी पर बैठा तथा न ही उसने अपने दरबार में अमीरों के खड़े होने पर जोर दिया। उसके लंबे शासनकाल के लिए यह नीति कारगर रही तथा उसे शक्तिशाली अफगान अमीरों द्वारा किसी भी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा।
दोआब तथा मेवात के विद्रोहों का बहलोल लोदी ने सफलतापूर्वक दमन किया सन 1476 में उसने जौनपुर के सुल्तान को पराजित कर दिल्ली सल्तनत मे शामिल कर लिया। कालपी तथा धोलपुर के शासकों को भी वह दिल्ली साम्राज्य का अंग बनाने में सफल रहा। हालांकि वह बंगाल, गुजरात तथा दक्कन प्रदेशों को जीत न सका।
बहलोल लोदी की मृत्यु के उपरांत सिकंदर लोदी ( 1489-1517) गद्दी पर बैठा सिकंदर लोदी गैर मुस्लिमों के प्रति सहनशील नहीं था तथा उसने जजिया कर गैर मुस्लिमों पर दोबारा से लगाया। सिकन्दर लोदी सुल्तान की सर्वोच्चता में विश्वास करता था। उसने सरदारों और अमीरों को दरबार में सुल्तान के प्रति आदर दर्शाने को विवश किया तथा दरबार के बाहर उनसे कड़ाई से बर्ताव किया। उसने बिहार, धौलपुर, नारवार तथा ग्वालियर और नागौर के कुछ हिस्सों को दिल्ली सल्तनत का दोबारा से हिस्सा बनाया।
सन् 1517 में सिकन्दर लोदी की मृत्यु के पश्चात उसके सरदारों ने इब्राहिम लोदी को सुल्तान बनाया। उसका साम्राज्य शासन काल विद्रोहों का काल साबित हुआ। पहले उसके भाई जलाल खान ने विद्रोह किया। सुल्तान इब्राहिम लोदी ने उसे मरवा दिया। बिहार ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। पंजाब के शासक दौलत खां ने भी विद्रोह का बिगुल बजा दिया। सुल्तान के व्यवहार ने भी असंतोष उत्पन्न किया। असन्तुष्ट दौलत खान ने काबुल में बाबर को भारत पर आक्रमण के लिए आमंत्रित किया। बाबर ने 1526 पानीपत के प्रथम युद्ध में सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित कर दिया।
सल्तनत के अंत की व्याख्या करते हुए एक विद्वान का कथन है "दिल्ली सल्तनत ने, जिसने 1192 में तराई के प्रथम युद्ध से जन्म पाया था, अपनी आखिरी साँस पानीपत के मैदान से कुछ मील दूर 1526 में अपनी आखिरी साँस ली।"
सल्तनत के सम्मुख चुनौतियां
दिल्ली में मुगल वंश की स्थापना के साथ ही दिल्ली सल्तनत का अन्त हो गया 300 वर्षों से अधिक के शासन काल में सल्तनत ने काफी उतार-चढ़ाव देखे पर एक राजनीतिक शक्ति के रूप में वर्चस्व कायम रखा। यहाँ हम सल्तनत के समक्ष आई चुनौतियों पर चर्चा करेंगे।
मंगोल तथा अन्य शक्तियों द्वारा आक्रमण
अपनी स्थापना के साथ ही सल्तनत मंगोल के आक्रमणकारियों के निशाने पर रही। मंगोलेंकबीलाई समूह थे जो उत्तर-चीन तथा बाइकल झील के पूर्व के मूल निवासी थे। उन्होंने चंगेज खां के नेतृत्व में 12वीं शताब्दी में साम्राज्य की स्थापना की 13वीं शताब्दी के बाद से ही उन्होंने भारत पर लगातार आक्रमण किए एक नीति के अंतर्गत सुल्तानों ने उन्हें प्रसन्न रखा तथा कई बार रोका भी बलबन तथा अलाउद्दीन खिलजी ने विशाल सैन्य शक्ति की मदद से उन्हें रोका खिलजी के शासन काल के दौरान कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में मंगोल दिल्ली तक पहुंचे तथा बहुत नुकसान भी पहुंचाया। मंगोलों द्वारा किया गया अंतिम महत्त्वपूर्ण हमला मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में तरशमरीन के नेतृत्व में हुआ था। सुल्तानों की शक्ति तथा संसाधनों का बड़ा हिस्सा इन हमलों को रोकने में प्रयुक्त हुआ, किन्तु ये हमले सल्तनत को नष्ट नहीं कर पाए।
एक अन्य हमला जिसने सल्तनत को पूरी तरह हिलाकर रख दिया था, 1398 में तैमूर का हमला था। दिल्ली सल्तनत की कमजोर स्थिति तैमूर के दिल्ली आक्रमण के बाद और कमजोर हो गई थी। तैमूर तुर्कों की चगताई जाति के सरदार का पुत्र था। जब उसने भारत पर आक्रमण किया। उस समय वह पूरे मध्य एशिया का सुल्तान था। भारत पर तैमूर द्वारा किया गया हमला लूट-पाट वाला हमला था तथा उसका मुख्य उद्देश्य 200 वर्षों में दिल्ली के सुल्तानों द्वारा एकत्र की गई दौलत को लूटना था। सुल्तान नसीरुद्दीन तथा उनके वजीर मुल्लू एकबसल ने हालांकि तैमूर का सामना करने की कोशिश की, परन्तु वे पराजित हुए। तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया तथा 15 दिन रहा । उसने कत्लेआम का आदेश दिया तथा महिलाओं बच्चों सहित बड़ी संख्या में हिन्दू-मुसलमान मारे गए। भारत छोड़ने से पूर्व तैमूर के आक्रमण ने दिल्ली सल्तनत की नींव हिला दी। दिल्ली सल्तनत ने पंजाब से नियंत्रण खो दिया। तैमूर ने मुल्तान के शासक के रूप में खिजरखान को नियुक्त किया, जिसका नियंत्रण पंजाब पर भी था। तुगलक वंश के पतन के पश्चात उसने दिल्ली पर नियंत्रण स्थापित कर लिया तथा सैय्यद वंश की नींव डाली।
कुलीन वर्ग की आपसी जंग
300 वर्ष के दिल्ली सल्तनत के युग ने पांच वंशों का शासन देखा। इन वंशों के परिवर्तन तथा शासकों के सत्ताच्युत होने में मुख्य भूमिका सुल्तान तथा कुलीनों (उमरों) के संघर्ष ने निभाई ऐबक की मृत्यु के तुरंत बाद ही वे उत्तराधिकार के मुद्दे पर उलझ गए। अंततः इल्लुतमिश विजेता बनकर उभरा। इल्तुतमिश ने वफादार उमरों का समूह बनाया, जिसे तुर्क-ए-चहलगनी (चालीस) कहा गया इल्लुतमिश की मृत्यु के उपरांत चालीस समूह के कुछ सदस्य अपने प्रिय पुत्र/पुत्री को सुल्तान बनाने की फिराक में लग गए। 10 वर्षों में 5 सुल्तान बदले गए। इसके पश्चात जिस सुल्तान ने शासन किया वह नसीरुद्दीन महमूद था, जिसने लगभग 20 वर्ष शासन किया बलबन कार्यकारी सुल्तान था। यही बलबन नसीरुद्दीन महमूद की मृत्यु के पश्चात सुल्तान बना। हर शक्तिशाली शासक की मृत्यु के पश्चात् समान घटनाएं हुईं (बलबन, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोज तुगलक इत्यादि)। उत्तराधिकारी का कोई निश्चित नियम न होने की वजह से हर शक्ति शाली अमीर अपने पसन्द के उत्तराधिकारी को गद्दी पर बैठाने का प्रयत्न करता था अंततः बहलोल लोदी के सिंहासनारोहण के साथ, अफगानों ने सुल्तान पद दौड़ से तुर्कों को बाहर कर ही दिया।
प्रान्तीय शक्तियां
संघर्ष का अन्य रूप विभिन्न क्षेत्रों में विविध प्रान्तीय प्रमुखों द्वारा स्वतंत्रता का झंडा बुलंद करना था। परिणामस्वरूप कई स्वतंत्र तुर्क तथा अफगान शक्तियों का उद्य हुआ। ऐसे प्रदेशों में मुख्य थे बंगाल (लखनौती) जौनपुर, मालवा, गुजरात तथा दक्कन का बहमनी राज्य, ये प्रदेश अकसर सल्तनत के साथ युद्धरत रहते थे। इस प्रक्रिया ने सल्तनत को दुर्बल बनाया।
भारतीय शासकों के विद्रोह
सुल्तानों को भारतीय शासकों की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा था। राजपूताना के राजपूत सरदार (मेवाड़, रणथम्भौर, चित्तौड़ आदि) वारंगल, देवगिर, दक्कन तथा दक्षिण में मालबार, धार का राजा, मध्य भारत में मालवा, उड़ीसा में जाजनगर, तथा कई छोटे प्रान्त प्रमुख लगातार पराजयों के पश्चात भी सल्तनत के साथ संघर्षरत रहते थे । इन सभी संघर्षों ने सल्तनत को कमजोर किया।
खिलजी तथा तुगलक वंश के शासन के उपरान्त सल्तनत की स्थिति कमजोर होती चली गई। अतः 1526 में बाबर ने निर्णायक आक्रमण करके इसका अंत कर डाला। अब एक अधिक संगठित मुगल साम्राज्य भारत में स्थापित हुआ उसने आगे 200 वर्षों तक शासन किया। इसकी चर्चा हम अपने अगले पाठ मुगलश्शासन में करेंगे किन्तु मुगल काल पर चर्चा करने से पूर्व क्षेत्रीय शक्तियों को जानना आवश्यक होगा।
क्षेत्रीय शक्तियों का उदय 
आप पढ़ चुके हैं कि मुहम्मद तुगलक के शासनकाल से ही दिल्ली सल्तनत का विघटन प्रारंभ हो चुका था। हालांकि फिरोजशाह तुगलक ने नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया, किन्तु असफल हुआ। इस अवधि के दौरान कुछ प्राचीन शक्तियों ने खुद को सल्तनत के शासन से स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
जौनपुर
दिल्ली सल्तनत के पूर्वी भाग की एक प्रमुख समृद्धि शक्ति जौनपुर थी। मलिक सरवर जौनपुर का शासक था। जल्द वह कन्नौज, कारा, अवध, संदील, दालमऊ, बहराइच, बिहार तथा त्रिहुट का भी शासक बन बैठा। हालांकि उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की, पर उसने शरकी वंश की नींव डाली ।
सन 1399 मे मलिक सरवर की मृत्यु के पश्चात उसका गोद लिया पुत्र मलिक करनफुल सिंहासन पर बैठा। उसने मुबारक शाह की उपाधि धारण की और शरकी वंश का प्रथम सुल्तान बना। जहां मुबारकशाह जौनपुर का शासक था, उसी समय महमूद तुगलक, दिल्ली का सुल्तान, मल्लू इकबाल के हाथों की कठपुतली था। मल्लू इकबाल ने जौनपुर को जीतने का प्रयास किया, पर असफल रहे। सन 1402 में मुबारक शाह की मृत्यु के पश्चात उसका छोटा भाई इब्राहिम शासक बना, जिसकी शासन अवधि 34 वर्ष तक रही।
इब्राहिम के शासनकाल के दौरान दिल्ली और जौनपुर के संबंध मधुर नहीं रहे। इब्राहिम शरकी वंश का महान शासक था, जिसके शासन काल में जौनपुर शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गया था। उसके शासनकाल के दौरान विशेष प्रकार की स्थापत्य कला का विकास हुआ, जिसे स्थापत्य की शरकी शैली कहा गया इस कला की प्रमुख इमारत जौनपुर की अटाला मस्जिद है ।
इब्राहिम के उत्तराधिकारी ने चुनार के किले पर विजय पाई उसने कालपी को विजय करने का भी प्रयत्न किया पर असफल हुए। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया पर बहलोल लोदी ने उसे पराजित कर दिया। महमूद के पश्चात मुहम्मद शाह तथा हुसैन शाह का शासन काल चला। सन 1500 में हुसैन शाह की मृत्यु के साथ ही शरकी वंश का अंत हो गया।
कश्मीर
शम्सुद्दीन शाह (1339 ई.) कश्मीर का प्रथम मुस्लिम शासक हुआ। सन 1398 में सिकन्दर गददी पर बैठा। वह एक शक्तिशाली तथा वीर शासक था। सिकन्दर की मृत्यु 1416 ई. में हुई तथा उसका पुत्र अली शाह गद्दी पर बैठा। कुछ वर्षों के उपरान्त उसका भाई शाह खान जैनुल आबिदिन के नाम से गद्दी पर बैठा । 
जैनुल आबिदिन उदार तथा बुद्धिमान शासक था। प्रत्येक समूह का समर्थन प्राप्त करने के लिए उसने उन सभी संघों का आह्वान किया, जिन्हें सिकंदर ने नष्ट कर दिया था। उसने जजिया कर को हटाया तथा गौवध पर प्रतिबंध लगाया जैनुल आबिदिन ने कश्मीर के आर्थिक विकास पर विशेष बल दिया। वह फारसी, संस्कृत, तिब्बती तथा कश्मीरी भाषा का विद्वान था। उसने महाभारत तथा राजतरंगिणी (कश्मीर का इतिहास) के फारसी में अनुवाद की आज्ञा दी थी। जैनुअल आबिदिन के उत्तराधिकारी कमजोर शासक साबित हुए। उनकी दुर्बलताओं का फायदा उठाकर बाबर के एक रिश्तेदार मिर्जा हैदर ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया। सन 1586 में अकबर ने कश्मीर को मुगल साम्राज्य में शामिल कर दिया।
मालवा
मालवा दिल्ली सल्तनत का दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र था। सन 1310 में सुल्तान अलाउद्दीन ने इसे जीता था तथा फिरोज तुगलक की मृत्यु तक यह दिल्ली सल्तनत का ही हिस्सा बना रहा। सन 1401 में तैमूर के आक्रमण के पश्चात् दिलावर खान ने दिल्ली के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को उतार फेंका । उसने सुल्तान की शाही उपाधि धारण नहीं की। सन 1405 में दिलावर खान की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र आला खान सिंहासन पर बैठा तथा होशांग शाह की उपाधि धारण की। उसने मांडू को अपनी राजधानी बनाया हिन्दी महल, जामा मस्जिद तथा जहाज महल मांडू स्थापत्यकला के कुछ नमूने हैं। 
होशांग खान के पश्चात गाजी खान सिंहासन पर बैठा जिसे 1436 ई. में उसके मंत्री महमूद खान ने सत्ताच्युत कर दिया। महमूद ने शाह की उपाधि धारण की और मालवा के खिलजी वंश की स्थापना की। महमूद खिलजी के शासनकाल में मालवा शक्तिशाली तथा समृद्धि राज्य बन गया था। फरिश्ता के अनुसार वह विनम्र, बहादुर तथा विद्वान व्यक्ति था महमूद के बाद उसके उत्तराधिकारी क्रमशः गयासुद्दीन नसीरुद्दीन हुए। सन 1510 में महमूद द्वितीय ने गद्दी संभाली। उसने दगाबाज अमीरों को दबाने के लिए वीर राजपूत मेदिनी राय को बुलाया तथा उसे अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। दरबार में राजपूतों के वर्चस्व ने ईर्ष्या के माहौल का निर्माण किया। गुजरात के सुल्तान ने मालवा को हराकर उसे गुजरात का एक अंग बना दिया।
गुजरात
गुजरात की भौगोलिक स्थिति, सम्पन्नता तथा उपजाऊ उर्वरता ने आक्रमणकारियों को सदा ही अपनी ओर आकर्षित किया सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था, जिसने गुजरात को दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बनाया उसके बाद यह तुर्क शासकों के ही अधीन रहा। तैमूर के आक्रमण के समय जफर खान उस क्षेत्र का संचालन कर रहा था उसने दिल्ली के प्रति अपनी निष्ठा को छोड़ दिया। सन 1410 वह गुजरात का स्वतंत्र शासक बन गया। गुजरात के शासकों में सबसे प्रमुख शासक अहमद शाह (1411-1441) था। अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने राजपूतों को नियंत्रण में रखा। अहमदशाह ने अहमदाबाद शहर की स्थापना की।
सन 1441 में अहमदशाह की मृत्यु के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र मुहम्मद शाह सिंहासन पर बैठा। वह ज्र-बख्श के नाम से जाना जाता है। 1451 में षड्यंत्रकारियों के हाथों उसकी मृत्यु हो गई। मुहम्मद शाह के बाद दो अयोग्य शासकों का समय चला। अमीरों ने अहमद शाह के पौत्र फतेह खान को सिंहासन पर बैठाया। वह इस वंश का सफलतम शासक था। उसने 52 वर्षों तक शासन किया उसके पश्चात कई उत्तराधिकारी हुए, जिनके शासनकाल बहुत छोटे रहे। सन 1572 में अकबर ने गुजरात को जीत कर मुगल साम्राज्य का हिस्सा बना लिया।
बंगाल
दिल्ली सल्तनत का सुदूर पूर्वी क्षेत्र बंगाल था। यातायात तथा संचार के साधनों के अभाव की वजह से इस क्षेत्र के नियंत्रण में कठिनाई आती थी । हालांकि बंगाल दिल्ली सल्तनत का ही हिसा बन गया था परन्तु कई बार इसने स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया था। 12वीं शताब्दी के अंतिम दशक में मुहम्मद बिन बख्तियार ने बंगाल को मुहम्मद गोरी द्वारा विजित क्षेत्रों का ही एक हिस्सा बना दिया था। किन्तु उसकी मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारियों ने स्थानीय जनता की सहायता से स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। बलबन ने बंगाल को दिल्ली की अधीनता स्वीकारने को बाध्य किया तथा अपने पुत्र बुगराखान को वहां का शासक नियुक्त किया। किन्तु बलबन की मृत्यु के उपरान्त उसने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया। ग्यासुद्दीन तुगलक ने इस झगड़े को सुलझाने का प्रयास किया तथा बंगाल को तीन प्रशासनिक इकाइयों में बांटा- लखनौती, सतगाँव सोनारगावं मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली की सर्वोच्चता घोषित करने का प्रयत्न किया किन्तु जब सुल्तान अन्य विद्रोहों को दबाने में व्यस्त था तो बंगाल ने खुद को दिल्ली से एकदम अलग कर दिया।
एक अभिजात हाजी इलियास ने बंगाल को पुनः संगठित किया शम्सुद्दीन इलियास शाह के नाम से गद्दी पर बैठा। हाजी इलियास के बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए फिरोज तुगलक ने बंगाल को जीतने का प्रयत्न किया, किन्तु उसे असफलता ही हाथ लगीं उसे इलियास के साथ संधि करनी पड़ी । संधि के अनुसार दोनों राज्यों बीच कोसी नियंत्रण रेखा बनी। सन् 1357 ई. में हाजी इलियास की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र सिकन्दर गद्दी पर बैठा। उसके शासन काल के दौरान फिरोजशाह तुगलक ने बंगाल को सल्तनत में मिलाने का दोबारा प्रयत्न किया, किन्तु वह पुनः असफल हुआ सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात ग्यासुद्दीन आज़म सिंहासन का अधिकारी बना। उसने चीन के शासक के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध कायम किए, जिसने समृद्धि विदेशी व्यापार को जन्म दिया। इसके पश्चात नसीरुद्दीन, हाजी इलियास का पौत्र बंगाल का शासक था। उसका शान्तिपूर्ण शासन काल 17 वर्षों तक चला।
अलाउद्दीन हुसैन शाह के शासन काल में बंगाल धनी तथा सम्पन्न प्रदेश बन गया । उसकी मृत्यु के पश्चात 1518 ई. में नसीब खान सिंहासन पर नसीरउद्दीन नुसरत शाह के नाम से बैठा।
सन 1538 में शेरशाह सूरी ने सुल्तान ग्यासुद्दीन महमूद शाह को पराजित कर बंगाल को अपने साम्राज्य का ही अंग बनाया।
आपने क्या सीखा
  • इस्लाम अरब मे उदय हुआ तथा खलीफाओं के नेतृत्व मे जल्द ही विश्व के सम्पूर्ण हिस्सों में फैल गया। अरब की सेनाओं ने मध्य एशिया के बड़े भू-भाग पर अधिकार स्थापित किया तथा सन् 712 ई. में भारत पर आक्रमण किया अन्य महत्त्वपूर्ण हमला महमूद गज़नबी द्वारा भारत पर किया गया आक्रमण था। उसके आक्रमण का मुख्य उद्देश्य भारत की दौलत को गजनी लेकर जाना था ।
  • 12वीं शताब्दी में भारत छोटे-छोटे प्रांतों में विभक्त हो गया, जिनके शासक मुख्यतः राजपूत थे। इस समय भारत की राजनीतिक स्थिति अच्छी न होने की वजह से मुहम्मद गोरी ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए भारत का रुख किया। सन् 1191 में तराई के प्रथम युद्ध में मुहम्मद गोरी राजपूत राजा पृथ्वीराज  चौहान से पराजित हुआ। किन्तु 1192 में (तराई के द्वितीय युद्ध) मुहम्मद गोरी वापस लौटा तथा इस बार राजपूत पराजित हुए। इस प्रकार दिल्ली तुर्क शासकों के नियंत्रण में चला गया मुहम्मद गोरी भारत का शासन अपने विश्वसनीय सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक के हाथों सौंप कर वापस चला गया कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की नींव डाली। इल्तुतमिश ने आंतरिक विद्रोहियों का दमन करके तथा विश्वसनीय अमीरों का समूह बनाकर सल्तनत को संगठित किया। गुलाम वंश का अंतिम शक्तिशाली सुल्तान बलबन था, जो सन् 1266 में सुल्तान बना। उसने निरंकुश शासन किया तथा सुल्तान की गरिमा को कायम करने के लिए कई कदम उठाए। सन् 1287 में बलबन की मृत्यु के उपरान्त सन् 1290 में खिलजी सत्ता में आए। 
  • खिलजियों के उदय ने तुर्क शासकों के एकाधिकार पर लगाम लगा दी जलालुद्दीन खिलजी ने खिलजी वंश की नींव डाली। सन् 1296 में अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को मारकर स्वयं सुल्तान की पदवी धारण की। उसने पद की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया उसने अमीरों का दमन किया तथा एक तानाशाह की तरह शासन किया उसके योग्य सेनापतियों, अल्पखान, नुसरत खान, ज़फर खान, अलुगखान तथा मलिक काफूर ने कई महत्त्वपूर्ण विजय हासिल की अलाउद्दीन खिलजी की एक अन्य उपलब्धि बाजार सुधार थे, जहां वस्तुएं निर्धारित मूल्य पर ही बेची जाती थी तथा व्यापारी अधिक लाभ नहीं कमा सकते थे उसने विभिन्न वस्तुओं के लिए विभिन्न बाजारों की स्थापना की।
  • खिलजी वंश के पश्चात् तुगलक वंश ने गद्दी की बागडोर अपने हाथ में ले ली। सन् 1320 में ग्यासुद्दीन तुगलक सिंहासन पर बैठा सन् 1325 में मुहम्मद बिन तुगलक उसका उत्तराधिकारी बना। मुहम्मद बिन तुगलक को उसकी नयीश्योजनाओं के लिए जाना जाता है। इन योजनाओं में मुख्य है दिल्ली से दौलताबाद राजधानी का स्थानांतरण तथा प्रतीकात्मक मुद्रा का चलन।
  • मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् अमीरों तथा उलेमाओं ने फिरोज तुगलक को गद्दी पर बैठाया। उसके शासन काल में विघटन प्रारंभ हो गया सन् 1398 ई. में तैमूर ने दिल्ली सल्तनत पर लूटपाट के उद्देश्य से आक्रमण किया तैमूर के आक्रमणों ने सभी क्षेत्रीय शक्तियों को सल्तनत से स्वतंत्रता घोषित करने का अवसर दिया।
  • मलिक सरवर ने जौनपुर के कार्यकारी शासक के रूप में शासन किया अन्य प्रांत मालवा ने भी दिल्ली सल्तनत की प्रभुता को झटक दिया तथा उसके शासक महमूद खिलजी ने मालवा की सीमाओं का विस्तार किया गुजरात भी सल्तलत के प्रभाव से तब मुक्त हो गया जब उसके शासक जफरखान ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया। गुजरात का सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक अहमद शाह था, जिसने अहमदाबाद की स्थापना की। प्रान्तीय शासनों में सर्वाधिक उल्लेखनीय शासन कश्मीर के शासक जैनल आबिदिन का रहा। उसके शासनकाल में कश्मीर शक्तिशाली तथा समृद्धि राज्य बन गया था।
  • सल्तनत के सुदूरपूर्वी क्षेत्र बंगाल को बार - बार सल्तनत का हिस्सा बनाया, किन्तु उसने बार-बार स्वतंत्रता हासिल कर ली। हाजी इलियास ने सल्तनत द्वारा तीन प्रशासनिक इकाइयों में विभाजित बंगाल को संयुक्त किया ।
  • तैमूर ने खिजरखान को मुल्तान का शासक नियुक्त किया जिसने सैय्यद वंश की स्थापना की। इस वंश को लोधी शासकों द्वारा सत्ताच्युत कर दिया गया बहलोल लोदी ने सन् 1451 में लोधी वंश की नींव डाली। बहलोल लोदी एक सक्षम शासक था तथा वह कुलीनों का विश्वास जीतने में सफल रहा। उसका उत्तराधिकारी सिकन्दर लोदी हुआ। लोदी वंश के आखिरी शासक इब्राहिम लोदी को बाबर ने सन् 1526 में पानीपत के प्रथम युद्ध में पराजित कर दिया। सन् 1192 में जन्मी दिल्ली सल्तलत ने आखिरी सांस 1526 में ली तथा मुगल साम्राज्य की स्थापना के लिए रास्ता बनाया।
शब्दावली
अमीरसेनापति, दिल्ली सल्तनत का तीसरा सबसे ऊंचा आधिकारिक पद
अरीज-ए-मुमालिकपूरे देश की सेना का मंत्री
अमीर-ए-अखनूरअश्वों का प्रधान
अमीर-एक-तुजुकसमारोह प्रमुख
बरीदसूचना अधिकारी
चौगानपोलो जैसा खेल
दलालमध्यस्थ
दरबारशाही दरबार
दोआबगंगा तथा यमुना के बीच की भूमि
दीवान-ए-अर्जबलबनकालीन सैन्य विभाग
इक्ताभूखंड जो वेतन के बदले में दिया जाता है
इक्तादारइक्ता प्राप्त करने वाला
जज़ियागैर मुस्लिमों पर लगने वाला व्यक्तिगत कर
जित्तलदिल्ली सल्तनत का तांबे का सिक्का
खुतबाधार्मिक प्रवचन
ख्वाज़ामालिक, व्यापारी
मालिकदिल्ली सल्तनत में इसका अर्थ अधिकारियों की दूसरी उच्च श्रेणी
मामलुकगुलाम अधिकारी
मंडीअनाज बाजार
मुहियानगुप्तचर
नायबउप सलाहकार
पायबोसपैरों को चूमना
राय रायनअलाउद्दीन खिलवी द्वारा देवगीर के शासक रामदेव को दी गई उपाधि।
सराय आदिलकपड़ा बाजार
टंकासल्तनत कालीन चांदी के सिक्के
उलेमामुस्लिम धार्मिक विद्वान
उमराअमीर का बहुवचन । अमीर का अर्थ है दिल्ली सल्तनत के कुलीन व्यक्ति।